तेरे प्यार में मनीषा कोइराला

उन दोनों को स्टेज पर रहने का बहुत शौक था और वे जब नींद से जागते थे, तब चाहते थे कि कम से कम दो-ढ़ाई सौ लोग आँखें फाड़े उनके जागने का इंतज़ार कर रहे हों, लेकिन कमरे का किशनकुमारनुमा एकांत उनका स्वागत करता था जिसमें फिर से सो जाना ही सबसे अच्छा विकल्प था। (आप नहीं जानते हों तो जान लीजिए कि अच्छा सिला दिया तूने मेरे प्यार का वाली पिक्चर वाले किशन कुमार गुलशन कुमार नामक हस्ती के भाई थे या हैं। गुलशन कुमार वही, जो अपने भजनों की वजह से हम में से बहुतों के अधार्मिक होने के लिए ज़िम्मेदार हैं। माता उनकी आत्मा को भजन दे!)

Penelope Cruz in Pedro Almodovar's Volver
ऐसी ही एक सुबह पहले ने दूसरे को फ़ोन मिलाया। माहौल ज़रूर भक्तिमय हो गया है लेकिन वे ईश्वर या संगीत के बारे में कोई बात नहीं करना चाहते थे। वे दोनों गहरे दोस्त थे। जैसे एक सिगरेट तो दूसरा- दूसरी सिगरेट, एक चाकू तो दूसरा- दूसरा चाकू, एक आम तो दूसरा संतरा।
     
पहले ने दूसरे से कहा कि वह अपनी पत्नी से ऊब गया है और हालांकि ऐसा सोचने पर उसे बहुत अफ़सोस होता है लेकिन फिर भी वह पिछले कुछ दिनों से लगातार सोच रहा है कि उसे मार डाले ताकि दूसरी शादी की जा सके। उसने कहा कि यूं तो वह तलाक की भी कोशिश कर सकता है लेकिन एक तो उसके पास ऐसी कोई जायज वज़ह नहीं जिसे वह बताए तो पत्नी तो क्या, एकाध दोस्त-रिश्तेदार ही सिर हिलाकर उसका समर्थन करे। दूसरा यह कि वह अपनी पत्नी से बहुत प्यार करता है और ख़ुद से बिछुड़कर अपनी पत्नी को टूटते हुए नहीं देख सकता। इस पर दूसरे को रोना आ गया। उसने पहले से माफ़ी माँगकर फ़ोन एक किनारे रखा और मुँह धोने वॉश बेसिन पर गया। फिर उसे चेहरा पोंछने के लिए देर तक तौलिया नहीं मिला और जब तक वह लौटकर आया, फ़ोन कट गया था। वह फ़ोन मिलाता लेकिन पिछली रात ही उसकी पत्नी ने उसके फ़ोन से एक समाचार चैनल पर पच्चीस वोट दिए थे कि सचिन तेंदुलकर को तीसरा बच्चा भी पैदा करना चाहिए। इस वज़ह से दूसरे का बैलेंस अड़तीस नए पैसे बचा था। वह फ़ोन नहीं मिला पाया और पहले ने भी फ़ोन नहीं किया। इससे दूसरे को लगा कि पहला अपनी पत्नी को मारने के मिशन पर निकल गया है। उसे इतना दुख हुआ कि वह किसी कहानी में होता तो उसका कलेजा मुँह को आ जाता। दरअसल जब से वह पहले की पत्नी से मिला था यानी पिछले डेढ़ साल से, तब से ही वह उसके स्तन देखना चाहता था और हताशा के इन तमाम सालों में भी उसकी उम्मीद का जीरो वाट का बल्ब बुझा नहीं था। वह चेहरा पोंछने के बाद यही बात पहले से कहना चाहता था कि वह उसे एक बार अपनी पत्नी के स्तन देखने दे और फिर चाहे तो उसे रेल के आगे धक्का दे दे या ज़हर।
     
दूसरे की पत्नी सो रही थी। वह पूजाघर में जाकर हाथ जोड़कर बैठ गया। उसकी आँखों से अश्रुधारा बह निकली।

- हे भगवान! मैंने आज तक तुमसे कुछ नहीं माँगा। जब अमावस की रात को मेरी माँ मर रही थी और मैं दवा लाने गया था, तब भी मैंने रास्ते में अपना सिर तुम्हारे दर पर नहीं झुकाया। लेकिन आज मैं तुम्हारे द्वारे आया हूँ। मेरी बिनती सुनो भगवन, यशोदादयाल, माखनचोर, गोपाल इत्यादि।
     
इस तरह माहौल किशन कुमार से गुलशन कुमार की ओर शिफ़्ट हो गया। भगवान के हाथ से एक फूल गिरा और दूसरा समझ गया कि पहले की पत्नी बच गई है।
एक महत्वपूर्ण बात यह है कि पहला, दूसरा, दूसरे की पत्नी, पहले की मां, इस तरह कहानी सुनाना मुझे बहुत मुश्किल काम लग रहा है। इसमें मेरे कनफ्यूज हो जाने का भी खतरा है। यह कितना बुरा लगेगा आपको कि मुझे चार पेज बाद याद आए कि बीमार दूसरे की नहीं, पहले की माँ थी। इसलिए जैसा किसी समझदार लेखक को चाहिए कि अपने पात्रों के सलीकेदार नाम रखे, मैं वैसा ही करता हूँ। मैं कोशिश करता हूँ कि सबके नाम अलग-अलग अक्षरों से शुरू हो रहे हों और उनके धर्म और जाति में विविधता हो। इस तरह वे स्वाभाविक लगेंगे। मैं उनमें से एक का उत्कर्ष या अजातशत्रु जैसा नाम रखना चाहता हूँ लेकिन जब वे दोनों पैदा हुए, तब इस तरह के नाम नहीं रखे जाते थे, इसलिए मुझे मन मारकर एक का नाम मनिन्दर और दूसरे का नाम अशोक रखना पड़ेगा। मनिन्दर सिख है और अशोक हिन्दू। अब मान लेते हैं कि अशोक की पत्नी मुसलमान है और उसका नाम वहीदा है। इसके लिए प्रेम विवाह को भी सीन में लाना पड़ेगा। मनिन्दर की पत्नी का नाम कुलजीत रखते हैं।
     
अब कहानी शुरू से न सुनानी पड़े, इसलिए बस इतना जान लीजिए कि अशोक वहीदा से ऊब गया था और उसे मारना चाहता था। जबकि मनिन्दर वहीदा के स्तन देखना चाहता था और इसलिए रो रहा था। गड़बड़ बस इतनी है कि वह गुरूनानक की तस्वीर की बजाय श्रीकृष्ण की मूर्ति के सामने क्यों बैठा, लेकिन आप भी जानते हैं कि इसके लिए मैं पर्याप्त तर्क और घटनाक्रम बता सकता हूँ और आधा पेज बर्बाद कर सकता हूँ। इसलिए आप सवाल न ही उठाएँ तो हम दोनों का भला है।
     
तो गुरूनानक देव जी के हाथ से फूल गिरा (ख़ुश मत होइए, देव जानबूझकर बदले गए हैं) और मनिन्दर को लगा कि वहीदा बच गई है। वह ऐसे उठा, जैसे आँधी में बाहर तार पर सूख रहे कपड़े उड़ते हैं और जाकर कुलजीत को बाँहों में भर लिया। वह कुलजीत को बेतहाशा चूमने लगा। कुलजीत नींद में मुस्कुराई और बी ग्रेड फ़िल्मों की सी नाटकीयता से कहने लगी- गर्दन पर भी अशोक, कान पर भी...
     
मनिन्दर वहीं जम गया। उसके हाथों से बर्फ़ गिरने लगी। जो भी हो, उसने एक शुभ महीने में शादी की थी और उसकी पत्नी ने अग्नि के फेरे लेते हुए कहा था कि जन्म-जन्म तक सिर्फ़ उसी को अपनी गर्दन चूमने देगी। (जाइए, नहीं की उन्होंने सिख रिवाज से शादी। लिए फेरे। क्या कर लेंगे आप?)
     
तो यह थी उन्नीस साल पुरानी दोस्ती जिसकी दुहाई देकर अशोक मनिन्दर की शादी में भाभी जी की गोद में बैठकर दस-बारह तस्वीरें खिंचवा रहा था? शुरू किसने किया होगा? कितनी बार? कब कब? कब से चल रहा है हवस का यह खेल? कौन है असली गुनहगार?

ऐसे सनसनीखेज ढंग से उदास होने के क़रीब पौने तीन मिनट बाद मनिन्दर ने फ़ैसला किया कि वह अशोक को मार डालेगा। उसने बड़े प्यार से कुलजीत का सिर धीरे से तकिये पर रखा और उसके माथे को चूमा। कुलजीत मुस्कुराई जैसे हत्या करने की इच्छाओं से भरी इस कहानी को ख़ुशनुमा बनाने की सारी ज़िम्मेदारी उसी की हो। इसके बाद मनिन्दर उस कमरे से बाहर आ गया और तब बरामदे में लगी अपने एक नाटक की तस्वीर देखकर उसे याद आया कि वह और अशोक उस नाटक कम्पनी के मालिक हैं और यदि अशोक मर गया तो अकाउंटबुक बनाने और लाइटें टैम्पो में लदवाने जैसे घटिया काम भी उसके हिस्से आ जाएँगे। इससे ज़्यादा उसे अपना मशहूर नाटक तेरे प्यार में मनीषा कोइराला याद आया जिसमें वह मनीषा बनता था और अशोक कोइराला और वे दोनों डिम्पल नामक एक लड़की से प्यार करते थे। वह अपनी तरह का इकलौता नाटक था क्योंकि उसका पहला आधा हिस्सा ही लिखा गया था। उसके बाद नाटक अपने चरित्रों के मूड के हिसाब से अपनी दिशा ख़ुद तय करता था। हो सकता है कि चंडीगढ़ में डिम्पल मनीषा को मिल गई हो और अम्बाला पहुँचते पहुँचते कोइराला डिम्पल को चूम रहा हो। जैसे ज़िन्दगी बदलती है, घटनाएँ हर बार, हर शहर में एक नया मोड़ लेती थीं और इस तरह मनिन्दर और अशोक और डिम्पल बनने वाली सुरभि या चाँदतारा भी नहीं जानती थीं कि अंत क्या होगा! शुरु में नाटक में छोटे से रोल में एक और पुरुष पात्र भी था। इटारसी में हुए नाटक के दूसरे ही शो में कहानी अपने आप ही कुछ यूँ घूमी कि वह तीसरा पुरुष पात्र और अशोक एक-दूसरे की जान के प्यासे हो गए। दर्शक भी हूटिंग करने लगे कि एक को तो मर ही जाना चाहिए। तब अशोक ने मुड़कर सलमान ख़ान की सी ख़ूबसूरत भावहीनता से दर्शकों को देखा और अपनी जेब से चाकू निकालकर तीसरे के सीने में घोंप दिया। उसके मरने का दृश्य भारतीय रंगमंच में (यदि रंगमंच की कोई परवाह करता है, तो) आज भी किलोमीटर का पत्थर माना जाता है।
       
अगले दिन एक मुख्य अख़बार में, जिसका नाम तो मैं नहीं लिख सकता क्योंकि उन्होंने कहानी लिखे जाने तक मेरा फ़ोन नहीं उठाया और इस तरह मैं उनसे पैसे नहीं ले सका और मुफ़्त में किसी का विज्ञापन करना मुझे अनैतिक जान पड़ता है। देखिए, पिछला वाक्य इतना लम्बा हो गया कि अधूरा ही छोड़ना पड़ा। तो अगले दिन एक मुख्य अख़बार में मशहूर रंगमंच और सिनेमा आलोचक फलाना कुमार ने पाँच स्टार देते हुए उस नाटक की समीक्षा में लिखा था- ...प्रेम में एक निर्दोष आदमी के मरने का दृश्य किसी गहरी आत्मिक पीड़ा से उपजा है। मंच पर खून से लथपथ होकर जब वह अभिनेता नितांत नई गालियाँ बोल रहा था, तब एक भी दर्शक ऐसा नहीं था जो रो नहीं रहा हो। इस तरह नाटक समता और सह-अनुभूति के अपने उद्देश्य में पूरी तरह सफल कहा जा सकता है। वह हम सबके मध्यमवर्गीय जीवन की मामूली दिखने वाली गहरी पीड़ाओं को बख़ूबी सामने लाता है...    
      
इस तरह कई बार यह भी लगता था कि सामने मौज़ूद दर्शकों की प्रतिक्रियाओं के अनुसार नाटक अपनी कहानी बदलता था, लेकिन मनिन्दर और अशोक ने सार्वजनिक तौर पर हमेशा इस आरोप को ख़ारिज़ किया था। उनके अनुसार शक्ति कपूर के कास्टिंग काउच प्रकरण के बाद यह कला पर लगा सबसे गंभीर आरोप था।
     
कुलजीत, जो पहले बराड़ थी और अब सन्धू हो गई थी, भी किसी ज़माने में एक उभरती हुई अभिनेत्री थी। तेरे प्यार में मनीषा कोइराला शुरू होने से पहले साढ़े पाँच साल तक लगातार जब वह उभरती हुई अभिनेत्री ही रही और उसे लगा कि वह कभी उभर नहीं पाएगी, तब एक शाम उसने मनिन्दर से कहा था- मुझसे शादी करोगे?
           
मनिन्दर उन दिनों सामाजिक सरोकारों वाले नाटक ही किया करता था, जिनमें प्यार के डायलॉग्स के बीच में भी गाँधी या विनोबा भावे टाँग अड़ा देते थे। वह लम्बे बालों वाली उस सुन्दरी के इस प्रेम प्रस्ताव पर हक्का-बक्का रह गया और उसने कहा कि भारत गाँवों में बसता है। कुलजीत ने कहा कि वह अपना प्रस्ताव वापस लेती है क्योंकि गाँव में उससे नहीं रहा जाएगा।
- नहीं नहीं, तुम मुझे ग़लत समझ रही हो। मैं दरअसल किंकर्त्तव्यविमूढ़ हो गया हूँ। जैसा कि तुम जानती हो, मैंने अपना जीवन इस देश में आदर्श समाज की स्थापना के लिए समर्पित किया है। क्या तुम इस काम में भी मेरी अर्द्धांगिनी बनोगी? कर सकोगी कठिन राहों पर मुझे सम्बल प्रदान?
कुलजीत हैरान सी होकर उसे देखती रही। उसका जी मिचलाने लगा।
- प्लीज़ हिन्दी में कहो कि तुम चाहते क्या हो?

इस प्रश्न से ही मनिन्दर की आँखें खुल गईं। उसे समझ में आया कि इतनी मेहनत करने के बाद भी और इतने पुरस्कार, वाहवाही पाने के बाद भी उनके नाटकों को देखने वाले इतने कम लोग क्यों होते हैं? उसे सामान्य होने में कुछ वक़्त तो लगा, लेकिन उसने कुलजीत से कहा कि अगले नाटक का नाम तेरे प्यार में मनीषा कोइराला होगा और उसके पहले शो के बाद वे शादी कर लेंगे। उस नाटक को लिखते हुए उसने सत्य के साथ मेरे प्रयोग की दो प्रतियाँ अनाधिकारिक रूप से जला दीं। यदि वह किसी जीवन में होता तो ऐसा करने पर उस पर केस किया जाता, उसके नाटक के पोस्टर फाड़े जाते, कुर्सियाँ तोड़ी जातीं। लेकिन उसका सौभाग्य कि वह कहानी में था।

नाटक के पहले शो में कुलजीत ने डिम्पल का रोल किया था। वह अच्छी एक्टिंग करती थी लेकिन जब किसी अच्छे दृश्य में लोग तालियाँ बजाने लगते थे तो वह मंत्रमुग्ध सी होकर दर्शकों की ओर ही देखने लगती थी। ऐसी मासूमियत की किसी भी कला में कोई जगह नहीं थी इसलिए शो के बाद मनिन्दर ने उसे बहुत प्यार से कहा कि यह अगली बार नहीं चलेगा।

कुलजीत का बचपन बहुत गरीबी में बीता था। ऐसी गरीबी जिसमें घर के पुरुष ही मीठा खा सकते थे। चीनी इतनी कम होती थी कि जब पुरुष अपने लिए चाय बनवाने आते तो जेब में दो-तीन चम्मच चीनी भरकर लाते। एक बार कुलजीत की माँ ने उस चीनी से अपने लिए भी आधा कप चाय बना ली थी तो उन्हें पीटने के बाद कुलजीत के पिता ने आँखें लाल करके कहा था- यहाँ हम दिन भर खेतों में अपना शरीर गलाते हैं और तुम लोग हो कि अय्याशी करती हो। मीठी चाय पीती हो।
कुलजीत तब चार बरस की थी और उसे लगा कि मीठी चाय पीना ही चरित्रहीन होना है। बाकी सब चीजें उसे हमेशा महत्वहीन लगीं। चौदह बरस की उम्र में जब उसने पड़ोस के एक लड़के को अपना कुँवारा शरीर सौंपा और उससे तीसरे दिन उसके भाई का कुँवारा शरीर ग्रहण किया, तब इस पूरे प्रकरण में उसे यह सोचकर अपने पर बहुत गर्व होता था कि उसने दोनों भाइयों के चाय पीने के प्रस्ताव को नहीं माना था।

इसी तरह पहले शो के बाद जब मनिन्दर की बात से कुलजीत बहुत अपमानित महसूस कर रही थी और अशोक ने उसे कन्धा दिया तो उसने साफ़ कहा कि वह एक ही शर्त पर उसके साथ उसके घर चलेगी कि वह उसे ज़बरदस्ती मीठी चाय नहीं पिलाएगा। अशोक ज़बान का पक्का आदमी था। उसने कुलजीत को कभी चाय नहीं पिलाई।

मगर उस शाम घर पहुँचने के बाद अशोक को अपने पिता की बहुत तेज आई। उसने साथ आई कुलजीत से कहा कि कुछ देर वह अपने पिता की यादों के साथ रहना चाहता है। इसलिए वह अभी चली जाए और दो घंटे बाद आए। कुलजीत उसे अपना ख़याल रखने का कहकर चली गई।

अशोक के पिता अमरचन्द एक घर को लूटने और उसके बाद घर की दो महिलाओं से बलात्कार करने के जुर्म में ग्यारह महीने से जेल में थे। कुलजीत के जाने के बाद वह देर तक सड़कों पर उदास टहलता रहा। हर औरत में उसे वे निर्दयी औरतें दिखाई देती थीं, जिन्होंने उसके पिता की शिनाख़्त की थी।
     
वह घर लौटा तो कुलजीत वहीं थी। वह उसके लिए खाना भी बनाकर लाई थी। अशोक ने उसे गले से लगाया और गले से लगाए हुए ही ताला खोला।
- क्या लाई हो?
- मटर पनीर
- मैं पनीर नहीं खाता। मुझसे पूछा तो होता।
     
कुलजीत को बुरा लगा। उसने टिफ़िन उठाया और खुले हुए दरवाजे में से बाहर सड़क पर फेंक दिया। इस पर अशोक भावुक हो गया। उसने शर्ट उतार दी थी। बिना शर्ट पहने ही वह दौड़कर सड़क पर गया और टिफ़िन के डिब्बे उठाने लगा।

मेरा ख़याल है कि यहाँ वहीदा एंट्री मार सकती है। उसका नाम बहुत पहले ले लिया गया है और वह सब काम छोड़कर कहानी में दाखिल होने के लिए तभी से बैठी है। बार-बार मुझे फ़ोन भी कर रही है। औरतों के फ़ोन यूँ बार-बार काटना अच्छा भी तो नहीं लगता। इसलिए जब अशोक टिफ़िन के डिब्बे सड़क पर से उठा रहा है और जाने क्यों, अपनी माँ को याद कर उसकी आँखों में पानी आ गया है, हम तीखे नाक वाली साँवली सी वहीदा को उस सड़क पर टहलने भेजते हैं। अब मैं आपके लिए हर सीन ओरिजिनल थोड़े ही रच सकता हूँ। कुछ पुराना भी झेलिए। तो जैसे ही अशोक नज़रें उठाता है, वे वहीदा की नज़रों से मिलती हैं और टाँका फिट। हो गई पहली नज़र की सेटिंग। इसके बाद दोनों नज़रें फेर लेते हैं और अपने अपने रस्ते वापस।        

जब अशोक अन्दर आया तो कुलजीत सोच रही थी कि वह उसे मनाएगा और प्यार करेगा। लेकिन अशोक ने आते ही कहा कि ऐसा मुँह नाटक में रोने के सीन में बनाया होता तो हिट ना हो जाते? कुलजीत नाराज़ होकर लौट गई।
     
इसके बाद अशोक जल्दी से ताला लगाकर उस ओर दौड़ा, जिधर वहीदा गई थी। वह जानबूझकर धीमे धीमे जा रही थी, इसलिए अशोक जल्दी ही उस तक पहुँच गया। वह हाँफ रहा था। वहीदा उसे अपनी ओर आते देखकर पहले ही रुक गई थी। अशोक ने उस तक जाकर हाथ आगे बढ़ाया।

- Hello ma’am, myself Ashok. I am an actor and writer and play director.

वहीदा ने उसे ज़ोरदार तमाचा मारा और तेजी से अपने रास्ते पर चल दी। अशोक हैरान सा खड़ा होकर उसे देखता रहा। फिर उसे कुछ याद आया और उसने जल्दी से अपना मोबाइल निकालकर कुलजीत को फ़ोन मिलाया। उसने फ़ोन काट दिया। फिर से मिलाया। फिर से काट दिया। फिर उसने एसएमएस किया- sorry kullu, I am missing you. Please come back.

कुलजीत नहीं आई। वह घर लौटा। उसने रोटी के साथ मटर पनीर खाया, जिसमें सड़क की थोड़ी मिट्टी भी मिल गई थी और उसे अपने पिता की बात याद आई- अगर सामने दो लॉकर हैं और उनमें से एक लॉकर खुल गया है और उसमें माल या पैसे भी हैं तो दूसरा लॉकर खोलने की कोशिश भी नहीं करनी चाहिए।

वह और मनिन्दर मिल-जुलकर लिखा करते थे। अगली दोपहर की मुलाक़ात में अशोक ने दार्शनिक होकर कहा- क्या कुत्ती ज़िन्दगी है यार!

इसके बाद समय ने पंख खरीदे और उन्हें लगाकर उड़ता गया। तेरे प्यार में मनीषा कोइराला में कुछ सुधार किए गए, छोटे रोल वाला तीसरा पुरुष पात्र मारा गया, कुलजीत ने एक्टिंग छोड़ दी और जो दो लड़कियाँ आईं- सुरभि और चाँदतारा, उन्होंने अपने अभिनय पर खूब मेहनत की थी और जब उनके किसी डायलॉग के बाद तालियाँ बजती थीं तो उनके चेहरे से ऐसा लगता था कि उन्हें किसी भी चीज से कोई फ़र्क नहीं पड़ता- न गालियों से, न तालियों से। कभी भी रो पड़ने की अद्भुत एक्टिंग करने के बावज़ूद वे वैसी अजीब तरह से पत्थर थीं जैसे ज़्यादातर अनुभवी और परिपक्व कलाकार या लेखक हो जाते हैं।

       कुलजीत ने मनिन्दर से अरेंज मैरिज की तरह लव मैरिज कर ली और एक शाम वहीदा ने अशोक को अचानक फ़ोन किया और कहा कि मौसम कितना अच्छा है! और जैसा कि आप मेरी हड़बड़ी से समझ सकते हैं, मैं जल्दी से जल्दी बता देना चाहता हूँ कि कुछ महीने बाद उन दोनों की भी शादी हो गई।

अमरचन्द को आठ साल की सजा सुनाई गई। उस दिन अशोक अदालत में गया था। अमरचन्द ने कहा- मैं अब ज़्यादा दिन नहीं जियूँगा। ऐसे बेरहम संसार से मेरा दाना-पानी उठ गया है।
      कुछ दिन बाद ही उसने जेल में लकड़ी की एक नकली पिस्टल बना ली, जो दूर से असली लगती थी। 26 जनवरी को जेल के मैदान में झंडा फहराया गया। जब समारोह के मुख्य अतिथि, राज्य के कानून मंत्री भाषण देने लगे और उन्होंने संविधान के बारे में कुछ फ़िजूल बातें बताईं तो अमरचन्द गरजकर उठा। उसने अपनी नकली पिस्टल कानून मंत्री की ओर तान ली। कानून मंत्री के हाथ कानून की तरह लम्बे नहीं थे, इसलिए वे हाथ बढ़ाकर उसकी पिस्टल नहीं छीन सके और पोडियम के पीछे छिप गए। इसके तुरंत बाद उनके दोनों बॉडीगार्डों ने अमरचन्द को भून दिया।
         
      इसी के कुछ समय बाद वह सुबह आई, जिसकी हमने शुरू में कुछ ज़्यादा ही देर तक बात की थी। जब पूजाघर से उठने के ठीक बाद मनिन्दर को पता चला था कि अशोक उसकी कुलजीत के साथ सोता है और उसने तय किया था कि उन्नीस साल पुरानी दोस्ती भूलकर वह अशोक को मार डालेगा। हम उस सुबह पर फिर लौटेंगे, लेकिन पहले मुझे महमूद के बारे में बताने दीजिए। आप उसे नहीं जानते लेकिन यक़ीन मानिए, बाद में आप ख़ुद कहेंगे कि बताकर मैंने बहुत अच्छा किया है।

      महमूद दिलचस्प आदमी था। कुछ लोगों का कहना था कि पहले वह रद्दी अखबारों से कागज के लिफाफे बनाने का काम करता था। तब उसकी उम्र तेरह-चौदह साल रही होगी। उन्हीं दिनों अखबारों को देखते देखते ही उसने बिना किसी की मदद के पढ़ना सीख लिया। और जैसा कि बहुत से लोगों के साथ होता है, पढ़ना उसके लिए बेहद खतरनाक शौक साबित हुआ। जब तक वह पढ़ना नहीं जानता था, तब तक उसके लिए दुनिया अपने घर और बिट्टू की उस दुकान तक ही सीमित थी, जिसमें वह काम करता था। उसके पिता एक इलैक्ट्रॉनिक्स की दुकान के बाहर अपनी हाथगाड़ी लेकर खड़े रहते थे और दिन में दो-तीन ग्राहकों के घर फ्रिज, कूलर या टीवी पहुँचा देते थे। पढ़ना सीखने से पहले महमूद को अपने पिता बाकी काम करने वालों की तरह ही लगते थे। उसके लिए वे दुनिया के सबसे शक्तिशाली लोगों में से थे, जिनके साए में वह और पूरा परिवार सुरक्षित था। लेकिन जैसे जैसे महमूद की अख़बार पढ़ने की स्पीड बढ़ती गई, उसे अपने पिता बहुत लाचार लगने लगे। उसने जाना कि रोज़ गटर में घुसकर बन्द पानी को चला देने वाला उसका हीरो जैसा भाई नवाज़ जब किसी घर से पानी माँगकर पीता है तो ज़रूरी है कि उसके पास अपना गिलास हो।

एक दिन उसने अपने पिता से कहा कि वे ऐसे कमर झुकाकर गाड़ी क्यों खींचते हैं? उन्हें सिर उठाकर इज़्ज़त का कोई काम करना चाहिए। इस पर उसके पिता ने उसे बहुत मारा।

जैसे पढ़ना ही काफ़ी नहीं था, कुछ बेचैन महीनों के बाद एक दोपहर खाना खाते हुए महमूद ने बिट्टू से पेन माँगा। बिट्टू ने अपने कान के पीछे से पेन उतारकर उसे दिया। पेन रुक रुककर चलता था। उसी से महमूद ने एक अख़बार के कोरे हिस्से पर कुछ लाइनें लिखीं-
हम शोला बन जल जाएँगे
हम बिजली बन गिर जाएँगे
आज तुम्हारा होगा पर
कल हम होंगे हम गाएँगे

उसी समय बिट्टू ने और ख़ुद महमूद ने भी जाना कि वह लिखना जानता है। बिट्टू को लगा कि वह काफ़ी दिन से इस पर मेहनत कर रहा है। उसकी इस बात का कभी किसी ने यक़ीन नहीं किया कि उसने कभी लिखना सीखने की कोशिश नहीं की थी और वे चार लाइनें पहली चीज थी, जो उसने लिखी। बिट्टू ने महमूद की माँ को बताया कि उसने लिखना पढ़ना सीख लिया है। महमूद की माँ उतनी ही ख़ुश हुई जितना दुखों की संभावनाओं से डरी हुई उस जैसी कोई भी औरत होती है। फिर भी उसने उस शाम से खाने के बाद सबसे छिपकर महमूद को एक कप दूध देना शुरू कर दिया। जो चार लाइनें उसने लिखी थीं और जिन्हें मैं और आप चाहें तो कविता मान सकते हैं, उन पर किसी ने कोई बात करने की ज़रूरत नहीं समझी। सबने यही समझा कि उसने अख़बार से ही कोई नकल की है।

उसके बाद महमूद ने बिट्टू की दुकान पर रद्दी में आई कॉपियों के खाली पन्नों को फाड़कर अलग रखना शुरू किया और उनसे अपने लिए डायरी बना ली। उसने उन चार लाइनों के बाद अगली जो कविता उसमें लिखी, वह किसी मस्जिद के टूटने के बारे में थी और उसमें अल्लाह, ख़ुदा या भगवान जैसा कोई शब्द नहीं आया था। उसके बाद उसने कई और कविताएँ लिखीं, जिनमें इतना गुस्सा भरा था कि सब कुछ जलाकर राख कर देने, सब कुछ बदल देने की बातें बार-बार होती थीं। जबकि असल ज़िन्दगी में वह बेहद शांत लड़का था और किसी से ऊँची आवाज़ में बात नहीं करता था।

ऐसे तीन-चार साल बीते। वह निखरता गया। उसने कुछ किताबें भी पढ़ीं और बहुत सारा लिखा। लेकिन फिल्मों की तरह बिट्टू की दुकान पर कभी ऐसा कोई मास्टर या कलाकार नहीं आया, जिसे बातों बातों में बिट्टू अचानक महमूद की प्रतिभा के बारे में बता दे और वह उस हीरे को कीचड़ में से निकालकर अपने साथ ले जाए। लगभग गोद ही ले ले, अपने साथ रखे, उसे और सँवारे और उसे बड़ा आदमी बना दे।
       
बस यह हुआ कि बिट्टू ने मोबाइल फोन की एक छोटी सी दुकान खोल ली और रद्दी वाला काम कुछ समय के लिए महमूद को ही सौंप दिया। महमूद के पिता एक दूसरी इलैक्ट्रॉनिक्स की दुकान के बाहर उम्मीद को अपने सिर पर रखकर खड़े रहते। उसकी माँ चालीस साल की उम्र में ही पैंसठ-सत्तर साल की औरतों की तरह खाट पर पड़ी रहने लगी। उसका भाई नवाज़ गटर में उतरता रहा। ज़्यादा से ज़्यादा शराब पीकर क्योंकि उसके बिना काम करना मुमकिन नहीं था। हाँ, उसकी फ़ुर्ती काफ़ी कम हो गई थी और महीने में पाँच-सात दिन वह बीमार पड़ा रहता था। इस चक्कर में उसे एक बार निकाल भी दिया गया था और तब वापस रखा गया था, जब उसके पिता दो घंटे तक एक बाबू के पैरों में पड़े रहे थे। वह भी मुसलमान था और उसने आखिर में यही कहा कि वह इसी बात का लिहाज कर रहा है।

एक दिन महमूद को रद्दी पत्रिकाओं के बीच एक नाटक का टिकट मिला, जो अगली शाम इंदिरा गाँधी ऑडिटोरियम में होने वाला था। नाटक का नाम जागते रहो भाग 2 था और इसे आत्मा की आवाज़ नामक नाटक कम्पनी करवा रही थी। महमूद ने अगली सुबह के अख़बार में भी उस नाटक के बारे में पढ़ा। उसी से उसे पता चला कि-

...आत्मा की आवाज़ नामक नाटक कम्पनी अपने नाटकों से समाज की कड़वी सच्चाइयों पर कुठाराघात करती है। उन्हें तीन बार इंदिरा गाँधी विशेष सम्मान, दो बार नेहरू सामाजिक कला पुरस्कार और एक बार राजीव गाँधी राष्ट्रीय रंगमंच पुरस्कार भी मिल चुका है। नाटक कम्पनी के लेखक-निर्देशक-संयोजक मनिन्दर सिंह और अशोक पंढेर हैं। मनिन्दर सिंह ने सुबह सुबह न्यूज नेटवर्क से एक्सक्लूसिव बातचीत में बताया कि उनके लिए रंगमंच आत्मा की संतुष्टि और समाज के सच का प्रतिबिम्ब है। वे नाटक को व्यवसाय बनाने वाले लोगों पर जमकर बरसे।...

यह रद्दी का अख़बार नहीं था। नया अख़बार था, जिसे महमूद ने खरीदा था। उसने अख़बार की दुकान वाले आदमी से पूछा कि कुठाराघात का क्या मतलब होता है? दुकानदार ने विचित्र सा मुँह बनाकर पूछा- किसका?
- कुठाराघात। यह देखो...
महमूद ने ख़बर की उस लाइन पर हाथ रखकर दुकानदार को दिखाया जिसमें समाज की कड़वी सच्चाइयों पर कुठाराघात हो रहा था। दुकानदार ने कुछ सोचकर कहा कि शायद इसका मतलब किसी की कोठरी में घात लगाकर किया गया हमला होता हो। क्योंकि घात लगाकर हमला करने की भी कई खबरें वह रोज़ पढ़ता है। हालांकि उसे ठीक से घात लगाकर हमला करने का मतलब भी पता नहीं है। दुकानदार ने कहा कि अख़बार वालों को भी कोर्स की किताबों की तरह हर ख़बर के बाद कठिन शब्दों के अर्थ छापने चाहिए। महमूद को ख़ुशी वाला अचंभा हुआ।

- कोर्स की किताबों में सच में ऐसे मुश्किल शब्दों के मायने लिखे होते हैं?
- और क्या! तुमने भी तो पढ़ी होंगी कभी। वाह बेटा, भूल भी गए।
- मैंने नहीं पढ़ीं।
- अरे जो संस्कृत जैसे शब्द होते हैं ना, उनके मतलब लिखे होते हैं। कहते हैं कि देशभक्त लेखक वैसे शब्द ज़्यादा लिखते हैं।

महमूद को कुछ-कुछ समझ आया।

अगले दिन वह शाम 6 बजे इंदिरा गाँधी सभागार पहुँच गया। कुछ पढ़े-लिखे लोग बाहर जमा थे। महमूद उनमें से एक समूह के पास खड़ा हो गया। उनमें से एक को छोड़कर सबकी उम्र 50 से ऊपर थी और वे बड़े अफ़सर लग रहे थे। वे भी भारी भारी शब्दों वाली बातें कर रहे थे। या तो अंग्रेजी के शब्द या संस्कृत जैसे शब्द। महमूद ने चाहा कि इनके पास एक चपरासी को कठिन शब्दों के अर्थों की तख्ती लेकर खड़े हो जाना चाहिए। उसे जितना समझ में आया, उससे यही समझ में आया कि उनकी किसी बात का कोई अर्थ नहीं था। उनके लम्बे लम्बे वाक्य जहाँ से शुरू होते थे, घूमकर वहीं ख़त्म हो जाते थे।
    
साढ़े छ: बजे टिकट दिखाकर सब अन्दर दाखिल हुए। कुल मिलाकर पैंतीस-चालीस दर्शक होंगे। सबसे पहले मंच पर अँधेरा हुआ। फिर रोशनी हुई। फिर अँधेरा हुआ। एक संगीत बजा, जो बीच में ही टूट गया और हल्की सी रोशनी के साथ अशोक और मनिन्दर स्टेज पर आए। उन्होंने सबसे पहले आए हुए अतिथियों को धन्यवाद कहा और साथ ही इंदिरा गाँधी को भी, जिनकी याद में कलाकारों के लिए ऐसा अच्छा सभागार बन सका था। फिर उन्होंने जागते रहो भाग 1 की कहानी संक्षेप में सुनाई।

नाटक का नायक कई दिन से लगातार सो रहा था। उसकी बहन की शादी होनी थी, माँ बीमार थी, पिता मर गए थे और आप समझ ही गए होंगे कि उसकी पत्नी भी गर्भवती थी। ऐसे में वह सो रहा था। आकाश में चीलें मँडरा रही थीं। समय बहुत क्रूर था। (मनिन्दर ने कहानी सुनाते हुए ये लाइनें भी जोड़ी। महमूद सोचता रहा कि चीलों के उड़ने, समय के क्रूर होने को नाटक में कैसे दिखाया गया होगा) ऐसे में तीनों औरतें नायक को जगाने की कोशिश कर रही थीं और नायक जग नहीं रहा था। एक दृश्य में नायक की माँ जब राशन डिपो से चावल और तेल लेने जाती है तो उसे कुछ नहीं मिलता। उसे बेइज्जत करके भगा दिया जाता है। अशोक ने कहा कि यह कालाबाज़ारी जैसी विकराल समस्या पर प्रहार है। शायद महमूद को छोड़कर सबने पहला भाग देख रखा था, इसलिए खूब तालियाँ बजीं। तभी पता चलता है कि नायक की पत्नी के पेट में जो भ्रूण है, वह लड़की है। तीनों औरतें इस पर खूब रोती हैं। आस-पड़ोस तक भी यह बात फैल जाती है। सब उन्हें सांत्वना देने आते हैं। नायक की पत्नी निश्चय करती है कि वह अबॉर्शन करवाएगी। सब उसके साथ हैं। अशोक कहता है कि इस दृश्य पर बैकग्राउंड में बहुत कारुणिक संगीत भी बजा था। कुछ दर्शक उसे याद कर आह आह कहते हैं। दाई बुलवाई जाती है। वह नायक की पत्नी के साथ जैसे ही अन्दर के कमरे की ओर बढ़ती है, दूसरे कमरे में सो रहा नायक चिल्लाकर उठता है- नहीं!!!!
परदा गिरता है।

यह सुनाते सुनाते अशोक और मनिन्दर की आँखों में आँसू आ गए थे। सब लोगों ने तालियाँ बजाईं। महमूद हैरानी से सब कुछ देख रहा था। इस बीच सात-आठ दर्शक सभागार से निकल भी चुके थे।

महमूद ने खड़े होकर पूछा- जब वह आदमी पूरे नाटक में सोता रहा, तब आप उसे बार बार नायक क्यों कह रहे हैं?
मनिन्दर ने कहा- आपकी आवाज़ नहीं आ रही है। आइए, हम सब देखते हैं- जागते रहो भाग 2..
वे चले गए। अँधेरा हुआ। कुछ समय बाद धीमी धीमी रोशनी हुई और नायक सामने आया। वह अशोक था।

सवा घंटे चला यह भाग उन मुश्किलों के बारे में था, जो नायक को दलित होने के कारण झेलनी पड़ती हैं। नाटक के आखिर में वह अपने अनुभवों पर एक किताब लिखता है। किसी क्रांतिकारी कवि की कविता बैकग्राउंड में सुनाई देती है और परदा गिरता है। महमूद ने बिल्कुल ऐसी कई कहानियाँ अख़बारों में पढ़ रखी थीं। वे कहानियाँ भी उसे नारों की तरह लगती थीं जिनकी त्रासदियों को ज़रूर ठंडी हवा में बैठकर कोई भरे पेट वाला ख़ुश आदमी लिखता होगा। उसे समझ नहीं आया कि इन नाटकों और इन्हें बनाने वालों को इतने ईनाम क्यों मिले हैं?

नाटक के बाद बाहर जब अशोक और मनिन्दर अपनी गाड़ी में बैठने ही वाले थे, उनके पास खड़े अफ़सरनुमा लोगों को चीरता हुआ महमूद उनके पास पहुँच गया।

- सर, मेरा नाम महमूद है। मैं बहुत लिखता हूँ। - उसने कुछ पन्ने अशोक की ओर बढ़ाए- आप एक बार मेरी चीजें देख लीजिए। मुझे उम्मीद है कि...कि आपको अच्छी लगेंगी। मैं सर आपके साथ काम करना चाहता हूँ।
आसपास खड़े लोग धीमे से मुस्कुराए। अशोक ने भी मुस्कुराते हुए, बिना एक भी शब्द उस पर खर्च किए, उसके कागज़ ले लिए।
मनिन्दर ने कहा- अपना नम्बर लिख दो। ठीक लगा तो हम फ़ोन करेंगे।
महमूद ने जल्दी से कागज लेकर बिट्टू की दुकान का नम्बर लिखा। उसके हाथ ख़ुशी से काँप रहे थे। उसे लगा जैसे वह अपने कलाकार बनने के एग्रीमेंट पर साइन कर रहा है।
   
उसके बाद वे सब महमूद को बिल्कुल भूलकर यह बात करने में मग्न हो गए कि झुग्गियों में रहने वालों के जीवन पर आजकल एक भी कहानी, एक भी नाटक, एक भी फिल्म नहीं दिखाई देती। इस पर उन सबने बेहद अफ़सोस ज़ाहिर किया। एक सज्जन ने कहा कि सरकार को इसमें हस्तक्षेप करना चाहिए। महमूद लौट आया।
     
उस पूरी रात महमूद को नींद नहीं आई। उसकी कविताओं में दिखने वाले भीतर के सारे गुस्से पर भी जैसे बर्फ़ पड़ गई थी। उसने आँखें खोले हुए अपने आपको स्टेज पर अपना लिखा हुआ एक गीत गाते देखा। सामने हज़ारों लोगों की भीड़ थी जो महमूद महमूद चिल्ला रही थी। अगली सुबह उठकर उसने अपनी माँ के माथे को चूमा और कहा कि अब सब कुछ ठीक हो जाएगा।
      
लेकिन कुछ भी ठीक हुआ नहीं। वह हर रोज़ उसी तरह दुकान पर जाता रहा और इंतज़ार करता रहा कि फ़ोन आएगा। वह दिन में दो-तीन बार तो बिट्टू से पूछ ही लेता था कि उसका फ़ोन आया या नहीं। दस-पन्द्रह दिन ऐसे ही बीत गए तो उसे लगने लगा कि शायद बिट्टू का नम्बर देकर उसने ग़लती की है। क्योंकि बिट्टू तो चाहेगा नहीं कि वह उसकी दुकान छोड़कर कहीं और जाए। इसलिए हो सकता है कि फ़ोन आया हो और बिट्टू ने उसे बताया न हो। अब उनसे सम्पर्क करने के दो ही तरीके थे- या तो वह आत्मा की आवाज़ का नम्बर ढूँढ़े या उनके फिर से अपने शहर में आने का इंतज़ार करे।

उसे नम्बर नहीं ढूँढ़ना पड़ा। तीन मुश्किल महीने ही बीते थे कि उसने अख़बार में आत्मा की आवाज़ के नए नाटक के बारे में पढ़ा। सिर्फ़ 5 शो के बाद ही वह उनका अब तक का सबसे पसंद किया जाने वाला नाटक बन गया था। नाटक का नाम था- आवाज़ दो।
    
अगले 2 दिन महमूद ने अपनी चुनिंदा कविताएँ, गीत और लेख एक नई कॉपी में उतारे। इस बार वह पूरी तैयारी के साथ जाना चाहता था। पहले पेज पर उसने अपना नाम, पता और अपने भाई नवाज़ के एक दोस्त का मोबाइल नम्बर लिखा। फिर उसने दुकान के पिछले अँधेरे हिस्से में जाकर दो-तीन घंटे तक अपनी कविताएँ पढ़ने और बातचीत करने का अभ्यास किया। उसे लगा कि पिछली बार वह बहुत हड़बड़ाया हुआ था। उसने तय किया कि इस बार वह किसी से भी बात करेगा तो गंभीर बना रहेगा और चेहरे पर मुस्कान बनाए रखेगा। साथ ही कोशिश करेगा कि वह अधीर न लगे।
    
शो की शाम वह ठीक समय पर बापू हॉल में पहुँच गया। यह शहर का सबसे बड़ा सभागार था और पिछले वाले की तुलना में इसमें तीन गुना दर्शक बैठ सकते थे। बाहर ही लम्बी लाइन लगी हुई थी। जब महमूद अन्दर पहुँचा तो हॉल खचाखच भरा हुआ था। उसकी सीट सबसे अंतिम लाइन में थी।
   
इसके बाद जो हुआ, उसके लिए हमारी भाषा में कोई एक शब्द नहीं है इसलिए विस्तार से ही बताना होगा। यह बताना होगा कि नाचती हुई लड़कियों और गुलाबी रोशनी के बीच अशोक ने स्टेज पर आकर सबसे पहले जो विद्रोह का गीत गाया, संयोगवश उसकी एक-एक लाइन महमूद के एक गीत से मिलती थी और संयोगवश वह उन कागजों में भी था जो महमूद ने तीन महीने पहले अशोक और मनिन्दर को दिए थे। आपने देखा ही होगा कि दर्शकों को जो गीत अच्छा लगता है, उसके साथ साथ वे कैसे लयबद्ध ढंग से तालियाँ बजाते हैं और कुछ उत्साहित लोग साथ में गाते भी हैं। यही हुआ। महमूद बैठा रहा। फिर नाटक कुछ आगे बढ़ा। खड़े होकर तालियाँ बजा रहे लोग बैठे। यह एक ऐसे आदमी की कहानी थी जिसे देशद्रोही बताकर जेल में डाल दिया गया है। बहुत उबाऊ और भाषणनुमा डायलॉग थे। कुछ लोग जम्हाई भी लेने लगे थे। लेकिन अचानक फिर एक गीत शुरू हुआ। कमाल का गीत। ऐसा, जिसे सुनकर लगता है कि इसे लिखा ही नहीं जा सकता। लोग फिर पागल होने लगे। फिर खड़े होकर तालियाँ बजाने लगे, फिर उल्लास। फिर महमूद वहीं बैठा रहा। दो-तीन शब्दों को छोड़कर संयोगवश इस गाने का भी हर एक शब्द महमूद के एक गीत से मिलता था।
    
नाटक के पूरा होने पर उसके पास बैठे आदमी ने उसके कंधे पर हाथ मारकर कहा- क्या कमरतोड़ नाटक था भाई!

आखिर में लेखक, निर्देशक, अभिनेताओं का परिचय करवाया गया। सब दर्शकों के सामने सिर झुकाकर खड़े हुए जैसे उनके गुलाम हों। तालियाँ बजीं और सब बाहर आ गए। इस तरह आत्मा की आवाज़ कम्पनी के इस म्यूजिकल हिट नाटक का एक और हिट शो पूरा हुआ। महमूद फिर अशोक और मनिन्दर की गाड़ी की ओर दौड़ा लेकिन इस बार भीड़ कई गुना थी। वह नाकाम रहा। दुनिया गोल थी और गोल ही अपने घर लौटी।
      महमूद ने घंटों पूरे मसले पर सोचा। उसने निष्कर्ष निकाला कि चूंकि उसने अपना नाम भी लिखकर नहीं दिया था, इसलिए वे लोग चाहकर भी उसका नाम लेखकों में नहीं जोड़ पाए होंगे। अब इतने बड़े लोगों को याद थोड़े ही रहता होगा कि कहाँ कौन मिला था और उसने कहा था कि सर मेरा नाम महमूद है या अशफ़ाक उल्ला खां है। उन्हें उसके गीत पसंद आए होंगे और वे चूंकि अपने काम के प्रति इतने समर्पित हैं, समाज के हित के लिए अपने नाटकों को ज़ीरो मनोरंजक भी बनाने को तैयार रहते हैं, इसलिए उन्हें यही ठीक लगा होगा कि नाटक में इन गीतों की ज़रूरत है तो इन्हें नाटक में ज़रूर होना चाहिए। हो सकता है कि रोज़ वे बिट्टू की दुकान पर फ़ोन करते हों और बिट्टू रोज़ कह  देता हो कि यहाँ कोई महमूद नहीं रहता।

इस तरह महमूद की कहानी में बिट्टू खलनायक बनकर उभरा और उसने तय किया कि अब एक भी दिन बिट्टू के लिए काम नहीं करेगा। अगली सुबह उसने अपने भाई नवाज़ को सारी कहानी सुनाई और कुछ पैसे लेकर दिल्ली निकल गया। यह समझदारी का काम उसने किया था कि नाटक के पोस्टरों पर से आत्मा की आवाज़ का दिल्ली का पता नोट कर लिया था।

आत्मा की आवाज़ का छोटा सा दफ़्तर मनिन्दर के घर के नीचे ही था। उसमें बैठे लड़के ने दो घंटे तक महमूद को बिठाए रखा। फिर उसने मनिन्दर को फ़ोन मिलाया- सर, महमूद है कोई। आपसे मिलना चाहता है।
      मनिन्दर जब तेजी से सीढ़ियाँ उतरता हुआ आया तो उसकी आँखों में आँसू थे। उसने दौड़कर महमूद को गले से लगा लिया। गले से हटाकर मनिन्दर ने लड़के को दो ठंडे लाने के लिए कहा और महमूद को लेकर ऑफिस में आ गया। वहाँ कूलर चल रहा था।
- सर, आप जो समाज के लिए इतना काम करते हैं, उसके लिए मैं आपकी बहुत इज्जत करता हूँ। आप जनता को जागरुक कर रहे हैं और किसी भी कला का काम यही होना चाहिए।
मनिन्दर उसे देखकर मुस्कुराता रहा।
- एक बात बताऊँ बच्चे, तू जब उस दिन मिला था ना, तभी मैं समझ गया था कि कुछ है तुझमें। मैं बन्दे की आँखें देखकर ही बता सकता हूँ कि उसके अन्दर क्या मसाला है।
महमूद शरमा सा गया। पहली बार किसी ने उसकी तारीफ़ की थी।
उसके बाद ठंडा आया। मनिन्दर ने उसे बारह सालों की अपनी मेहनत के बारे में बताया। कैसे वह और अशोक, तीन-चार और दोस्तों के साथ चौराहों पर नाटक किया करते थे, कैसे भूखे लोग उन्हें बेचैन करते थे, कैसे वे गन्दी बस्तियों को अपने नाटकों से स्वर्ग बना देना चाहते थे, कितनी मेहनत से उनका यह दफ़्तर बना था, कितनी मेहनत से लोग उन्हें जानने लगे थे आदि आदि। मनिन्दर ने उसे बताया कि वह बहुत अच्छा लिखता है और वे चाहते हैं कि वह उनके साथ ही काम करे और खूब नाटक लिखे। यह भी कि उन्हें उसका नाम याद था लेकिन नाटक के लेखकों में उसका नाम जानबूझकर नहीं जोड़ा गया। क्योंकि बहुत संभावना थी कि ऐसे विद्रोही लेखक को सरकार गिरफ़्तार कर ले।

- मेरे को और अशोक को तो लोग जानने लगे हैं। लेकिन तुझे फंदे में फँसाना आसान था बच्चे। मैं और अशोक कई दिन तक सोचते रहे और फिर हमने यही तय किया कि तेरे लिए तो तेरे काम का सामने आना ही ज़्यादा ज़रूरी है ना। हम तेरा नुकसान नहीं देख सकते थे कोई भी। हमारा क्या जाना था बता। जहाँ दो लोगों का नाम लिया, वहाँ तीसरा और ले लेते।

महमूद कुछ देर तक सोचता रहा। फिर उसने कहा कि हाँ, उसका काम उसके लिए ख़ुद से भी ज़्यादा ज़रूरी है। वह नाम तो कमाना चाहता है लेकिन उसके लिए इससे ज़्यादा ज़रूरी वे बातें कहना है, जिन्हें कहने के लिए वह मरा जा रहा है।
मनिन्दर अपनी सीट से खड़ा हुआ और महमूद तक आया।
- बारह साल पहले मैं बिल्कुल तेरे जैसा था बेटे और उसने महमूद को गले से लगा लिया।

उसी दिन बाद में कुलजीत को लगा था कि साढ़े पाँच साल से जब वह उभरती हुई अभिनेत्री ही है तो अब क्या खाक उभरेगी और उसने मनिन्दर से कहा था कि वह उससे शादी करना चाहती है। मनिन्दर जैसे अपने नाटकों के किरदार में ही था और उसने कहा था- कर सकोगी कठिन राहों में मुझे सम्बल प्रदान? और अगले ही पल तय किया था कि अगले नाटक का नाम होगा- तेरे प्यार में मनीषा कोइराला।

महमूद के रहने का इंतज़ाम दफ़्तर में ही कर दिया गया। जीवन में पहली बार वह कूलर के सामने सोता था। उसने अगले ही दिन एक कविता भी अपनी डायरी में लिखी जिसकी शुरुआत की लाइनें थीं- ऐसे ही बदलता है जीवन और हम बनते हैं चाँद।

अशोक और मनिन्दर मिल-जुलकर लिखा करते थे। अगली दोपहर की मुलाक़ात में अशोक ने दार्शनिक होकर कहा- क्या कुत्ती ज़िन्दगी है यार!

तब मनिन्दर ने उससे कहा कि ज़िन्दगी बहुत हसीन है। वह बाहर गया और महमूद को अपने साथ लेकर अन्दर आया। उसके बाद कुछ महमूद ने ख़ुद और बाकी मनिन्दर ने महमूद की जीवनी अशोक को सुनाई।
सुनकर अशोक भावुक हो गया और उसने खड़े होकर बोलना शुरु किया।
- महमूद, यह तुम्हारी आत्मा की सच्चाई ही है जो तुम्हें इस चालबाज शहर में भी ऐसी जगह ही ले आई है, जहाँ के लोग तुम्हें समझ सकते हैं। वो कहते हैं ना, कि हमारा मन चुम्बक की तरह होता है और अपने जैसे मनों की तरफ़ चुम्बक की तरह अपने आप ही खिंचकर चला जाता है। तुम नहीं जानते दोस्त कि यहाँ कैसे कैसे लोग हैं। ऐसे भी लोग हैं जिन्हें मशहूर होना होता है लेकिन वे समझ नहीं पाते कि क्या करें। तब वे सामाजिक संस्थाएँ खोलते हैं, आँसू, शिक्षा दीक्षा जैसे नामों से और सरकार से भी खूब पैसा बटोरते हैं और दयालु जनता से भी। तुम मानोगे नहीं कि कुछ लोग जानबूझकर ऐसे मसलों पर किताबें लिखते हैं, जिन्हें चाहे कोई न पढ़े, लेकिन सरकार उन्हें ईनाम और पैसा दे दे। जितने समाज सुधारक तुम्हें इस शहर में मिलेंगे, उनमें से निन्यानवे परसेंट समाज की दारू पीकर समाज के सिर पर पेशाब कर रहे होंगे।
मनिन्दर- और जो दो-चार ईमानदार लोग होंगे, सब उनके बारे में तुम्हें झूठी झूठी कहानियाँ सुनाएँगे।
अशोक- कोई तुम्हें यह भी कह सकता है कि आजकल की दुनिया में जब नाटक कोई नहीं देखता, तब मनिन्दर के पास यह घर, यह दफ़्तर कहाँ से आया...
मनिन्दर- अशोक के बारे में तो लोग बेशर्मी से यह भी कहते हैं कि इसके पिता जी चोर, लुटेरे और जाने क्या क्या थे। मुझसे तो बोला भी नहीं जाता...
अशोक- कुछ लोगों को लगता है कि हमें इतने अवॉर्ड इसलिए मिलते हैं क्योंकि हम नेताओं अफ़सरों को ख़ुश रखते हैं। माना कि इस देश में ज़्यादातर ऐसा ही होता है लेकिन सब बातें उनके बारे में ही उड़ाते हैं, जो अपने जुनून, अपनी मेहनत से इस मुकाम तक पहुँचते हैं।
मनिन्दर- कुछ लोग तुम्हें यह भी कहेंगे कि हम दोनों राजनीति में जाना चाहते हैं और इन सामाजिक नाटकों से अपनी इमेज बना रहे हैं।
महमूद- नहीं नहीं सर। यह सब मत बोलिए। कुत्ते हैं लोग तो। भौंकने दीजिए। हम अपना काम करते जाएँगे और देखना, एक दिन ये दुनिया वैसी होगी जैसा हम इसे बनाना चाहते हैं।

इसके बाद महमूद बस खाता-सोता था और बाकी समय लिखता-पढ़ता ही रहता था। ज़रूरी नहीं कि आप मेरी बातें मानें लेकिन मैं वही बता रहा हूँ जो आत्मा की आवाज़ के केयरटेकर लड़के ने मुझे बताया। इस बातचीत की रिकॉर्डिंग भी मेरे पास है। उस लड़के ने तो यह तक कहा कि तेरे प्यार में मनीषा कोइराला की एक एक लाइन महमूद ने ही लिखी थी।
मैंने आपत्ति जताई- नहीं यार, ये तुम झूठ बोल रहे हो। महमूद भला प्रेमकहानी लिखने को क्यों तैयार होता?
- यही तो आप नहीं समझ रहे सर। आप मनिन्दर सर और अशोक सर से मिले होते तो आपको समझ आता कि वे किसी को भी किसी भी काम के लिए तैयार कर सकते हैं। वे तेल भी उतनी ही आसानी से बेच सकते थे और एटम बम भी।
- तो क्या कहा था उन्होंने महमूद को?
- उन्होंने कहा कि बाकी सामाजिक नाटकों के लिए फंड की कमी हो रही है और हम एक ऐसा नाटक चाहते हैं जो उतना ही ईमानदार हो लेकिन लवस्टोरी हो।
- मतलब सीरियस प्रेमकहानी?
- हाँ।
- फिर महमूद इस मनीषा कोइराला टाइप नाम के लिए कैसे तैयार हुआ?
- उसे नहीं पता था कि मनीषा कोइराला एक हीरोइन है।
- क्या बात कर रहे हो यार। घाना से आया था क्या महमूद?
- वह ऐसा ही था सर। आप मानो या ना मानो।
- तो वह मान गया?
- हाँ। उसे समझाया गया कि उससे जो कमाई होगी उनसे क्रांतिकारी नाटक ज़्यादा हो पाएँगे।
- लेकिन इसमें तो ऐसा भी कोई खतरा नहीं था कि सरकार पकड़ लेगी। फिर महमूद ने यह क्यों नहीं कहा कि नाटक का लेखक उसी को बताया जाए?
- शुरु में उसे याद नहीं रहा। उसने नाटक लिख दिया। उसे ज़्यादा लोगों से मिलने से भी मना कर रखा था। मनिन्दर सर ने कह रखा था मुझे। वह हमारे किसी एक्टर को भी नहीं जानता था।
- शुरु में याद नहीं रहा। लेकिन बाद में?
- उसने एक बहुत अच्छी बात कही थी कि ज़िन्दगी में सब कुछ प्लान किया हुआ नहीं होता तो जब हम ऐसा नाटक करने का दावा करते हैं जो असल ज़िन्दगी जैसा है, तब उसका एक एक सीन पहले से क्यों लिखकर रखते हैं? तभी उसने कहा कि आधा नाटक लिखा हुआ और तैयार किया हुआ हो और बाकी आधा अपने आप स्टेज पर ही होने दिया जाए।
- वो तो ठीक है पर मैं तुमसे कुछ और पूछ रहा था। उसने अपना नाम ही लेखक के रूप में रखने को क्यों नहीं कहा?
- कहा ना सर लेकिन पहले शो के बाद उसे इस चीज की याद आई। वह शायद मानकर ही चल रहा था कि इस नाटक में तो उसे ही लेखक बताया जाएगा।
- किसे बताया गया?
- सर उसका भी एक छोटा सा रोल था। वह एक्टिंग भी कर रहा था उस नाटक में। जब आखिर में राइटर, डायरेक्टर, एक्टरों के नाम दर्शकों को बताए जाते हैं तो वह भी सबके साथ स्टेज पर ही खड़ा था। अनाउंसर ने कहा कि लेखक और निर्देशक अशोक पंढेर और मनिन्दर सिंह हैं। उस दिन सर, आप बीलीव नहीं करोगे पर इतनी भीड़ थी कि मैंने किसी नाटक में नहीं देखी।
- तब उसने स्टेज से ही नहीं कहा कि लेखक वो है?
- नहीं सर। बहुत तालियाँ बजने लगी थीं। वह बस रोने लगा वहीं। परदा गिर गया सर उतने में ही।
- फिर?
- फिर सर, मनिन्दर सर और अशोक सर ने उसे समझाया कि यह गलती अनाउंसर से हुई है। अगली बार उसी का नाम लिया जाएगा।
- अगली बार लिया गया?
- पहले मेरी बात तो पूरी करने दीजिए।
- हाँ हाँ बोलो।
- मगर वह दो दिन सदमे में रहा। उसने मुझसे कहा कि उसे इन लोगों पर भरोसा नहीं है। उसने कहा कि इस बार वह अपने रोल को नाटक के आखिर तक खींचेगा और ख़त्म होने से तुरंत पहले स्टेज से ही चिल्लाकर कहेगा कि यह नाटक इन दोनों ने नहीं, उसने ही लिखा है और आवाज़ दो के सारे गाने भी उसी के थे।
- फिर?
- फिर सर मेरी तो नौकरी थी। मेरी क्या गलती इसमें बताओ। मैंने बस मनिन्दर सर से कह दिया कि महमूद ऐसे ऐसे कह रहा है मुझे।
- तो उसे अगले शो में जाने ही नहीं दिया होगा?
- जाने दिया सर। सब वैसे ही हुआ। शो से पहले कोई गड़बड़ी नहीं कर सकते थे। मुख्यमंत्री आने वाले थे उस शो में और उसके बाद आत्मा की आवाज़ के काम के लिए पच्चीस लाख रुपए की एड की घोषणा करने वाले थे।
- बोला उसने चिल्लाकर?
- नहीं, उस दिन अशोक और महमूद एक दूसरे की जान के दुश्मन हो गए थे नाटक में। ऑडियंस में पता नहीं कौन लोग थे जो चिल्ला रहे थे कि इस छोटे वाले को मारो, छोटे वाले को मारो।
- झूठ बोल रहे हो ना तुम।
- नहीं सर, बाकी तो आपको भी पता है।
- वो जो एक कैरेक्टर मरा था नाटक में और जिसकी एक्टिंग की बहुत तारीफ़ हुई थी बाद में, महमूद ही था वो?
- हाँ सर।
- यार तुम अजीब कहानी बनाते हो। कोई ऐसे मुख्यमंत्री के सामने मारेगा अपने दुश्मन को?
- उसके तड़पते हुए ही परदा गिर गया था सर और उसे हम तीनों के अलावा कोई पर्सनली जानता भी नहीं था यहाँ। मैंने कहा ना आपको कि मनिन्दर सर और अशोक सर के लिए कोई काम मुश्किल नहीं था। जो उनसे नहीं मिला, उसे ही यह बात झूठी लग सकती है।

रिकॉर्डिंग मैंने सँभालकर रख ली। वह लड़का नौकरी छोड़कर वापस गोरखपुर अपने घर चला गया।

और जैसे बुद्धू लौटकर घर आते हैं, हम फिर उस सुबह पर लौटते हैं जहाँ से हमने शुरु किया था नाटक कम्पनी की मजबूरियाँ याद आने के बावज़ूद मनिन्दर ने तय किया कि वह अशोक को मार डालेगा। उसने एक बार और सोई हुई कुलजीत को चूमा और अपनी गाड़ी निकाली। गाड़ी स्टार्ट करते ही उसके दिमाग में एक और विकल्प आया। उसने अशोक को फ़ोन मिलाया (वह फ़ोन रीचार्ज करवा चुका था)। इस बार अशोक ने फ़ोन उठा लिया। अशोक भी ख़ुश था। उसने कहा कि उसने वहीदा को नहीं मारा है। जिस भी विधि से आती हो, अब मनिन्दर की जान में जान आई। उसने अशोक से कहा कि उसे उसके और कुलजीत के लफड़े का पता चल गया है। अशोक चुप रहा। मनिन्दर ने कहा कि डरने की कोई बात नहीं है। बस उसे बदले में वहीदा चाहिए। अशोक ने फ़ोन को चूमा और कहा कि वैसे तो वहीदा का मानना मुश्किल है लेकिन वह फिर भी पूरी कोशिश करेगा। मनिन्दर ने कहा कि वह दफ़्तर में आ जाए, फिर बैठकर तसल्ली से बातें करते हैं। फ़ोन रखकर मनिन्दर ने गाड़ी फिर पार्क कर दी। वह अन्दर आकर दफ़्तर में बैठ गया। लाइट नहीं थी। वह फिर बाहर आया। सड़क पर सीवर की खुदाई चल रही थी और शायद इसी से बिजली के तार कट गए थे। धूप कम थी। वह बाहर ही टहलने लगा। दस मिनट में ही अशोक आ गया। दोनों दोस्त गले मिले और उन्होंने मौसम के बारे में कोई बात की।

तभी सीवर के अन्दर से निकलकर एक आदमी उनकी तरफ आया। वह कीचड़ में पूरी तरह सना हुआ था। उसके हाथ में कीचड़ से सनी हुई ही लोहे की एक रॉड थी। वह उनके पास आकर खड़ा हुआ। रॉड उठाकर उसने अपने कंधे पर रखी। वे नाक पर हाथ रखते हुए थोड़ा दूर को हटे।

उस आदमी ने पूछा- आप ही मनिन्दर और अशोक हैं?
- हाँ...

केयरटेकर लड़के से बात करते हुए मैंने पूछा था- वह आदमी नवाज़ था क्या?
वह दिल खोलकर हँसा और बोला- मुझे क्या पता? कहानी तो तुम्हारी है।